निम्न रचना में व्यथा वर्णन है उन बड़ों का जो अक्सर अपने आपको ठगा सा महसूस करने लगते हैं ! कृपया किसी व्यक्तिविशेष से न जोड़ें ...
महसूस करें बुजुर्गों की व्यथा को, जो कभी कही नहीं जाती ...
शक्ति चुक गयी चलते चलते
महसूस करें बुजुर्गों की व्यथा को, जो कभी कही नहीं जाती ...
शक्ति चुक गयी चलते चलते
भूखे प्यासे, पैर न उठते !
जीवन की संध्या में थक कर आज बैठकर सोंच रहा हूँ !
क्या खोया क्या पाया मैंने , परम पिता का वंदन करते !
वृन्दाबन से मन मंदिर में,मुझको भी घनश्याम चाहिए !
क्या खोया क्या पाया मैंने , परम पिता का वंदन करते !
वृन्दाबन से मन मंदिर में,मुझको भी घनश्याम चाहिए !
बचपन में ही छिने खिलौने
और छिनी माता की लोरी ,
निपट अकेले शिशु, के आंसू
की,किस को परवाह रही थी !
बिना किसी की उंगली पकडे , जैसे तैसे चलना सीखा !
ह्रदयविदारक उन यादों से,मुझको भी अब मुक्ति चाहिए !
की,किस को परवाह रही थी !
बिना किसी की उंगली पकडे , जैसे तैसे चलना सीखा !
ह्रदयविदारक उन यादों से,मुझको भी अब मुक्ति चाहिए !
रात बिताई , जगते जगते
बिन थपकी के सोना कैसा ?
ना जाने कब नींद आ गयी,
बिन अपनों के जीना कैसा ?
खुद ही आँख पोंछ ली अपनी,जब जब भी, भर आये आंसू
आज नन्द के राजमहल में , मुझको भी वसुदेव चाहिए !
बरसों बीते ,चलते चलते !
भूखे प्यासे , दर्द छिपाते !
तुम सबको मज़बूत बनाते
"मैं हूँ ना "अहसास दिलाते !
कभी अकेलापन, तुमको अहसास न हो, जो मैंने झेला ,
जीवन की आखिरी डगर में,मुझको भी एक हाथ चाहिए !
जब जब थक कर चूर हुए थे ,
खुद ही झाड बिछौना सोये
सारे दिन, कट गए भागते
तुमको गुरुकुल में पंहुचाते
अब पैरों पर खड़े सुयोधन !सोंचों मत, ऊपर से निकलो !
वृद्ध पिता की भी शिक्षा में, एक नया अध्याय चाहिए !
सारा जीवन कटा भागते
तुमको नर्म बिछौना लाते
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते थे , सिरहाने
आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
बिन थपकी के सोना कैसा ?
ना जाने कब नींद आ गयी,
बिन अपनों के जीना कैसा ?
खुद ही आँख पोंछ ली अपनी,जब जब भी, भर आये आंसू
आज नन्द के राजमहल में , मुझको भी वसुदेव चाहिए !
बरसों बीते ,चलते चलते !
भूखे प्यासे , दर्द छिपाते !
तुम सबको मज़बूत बनाते
"मैं हूँ ना "अहसास दिलाते !
कभी अकेलापन, तुमको अहसास न हो, जो मैंने झेला ,
जीवन की आखिरी डगर में,मुझको भी एक हाथ चाहिए !
जब जब थक कर चूर हुए थे ,
खुद ही झाड बिछौना सोये
सारे दिन, कट गए भागते
तुमको गुरुकुल में पंहुचाते
अब पैरों पर खड़े सुयोधन !सोंचों मत, ऊपर से निकलो !
वृद्ध पिता की भी शिक्षा में, एक नया अध्याय चाहिए !
सारा जीवन कटा भागते
तुमको नर्म बिछौना लाते
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते थे , सिरहाने
आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
8 टिप्पणियां:
सुंदर भावपूर्ण रचना, आभार सतीश भाई
मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई…
Aankhen nam ho gayeen....
Makar Sankranti kee anek shubh kamnayen!
सुंदर भावपूर्ण रचना
बधाई
सारा जीवन कटा भागते
तुमको नर्म बिछौना लाते
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते थे , सिरहाने
आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
हकीकत यही है .
प्रवाह एवं प्रभावपूर्ण मर्मस्पर्शी कविता ।
hridaysparshi rachna...
बहुत ही हृदय विदारक कविता है |सच में एक समय आता है जब माँ -बाप को भी सहारा चाहिए और कम्प्यूटर दौड़ में मशगूल बच्चों को यह समझना चाहिए|
sudha bhargava
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !शुभकामनायें.
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